भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नागरिक कितना अकेला / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
इबादतगाहों से उतरती हैं काली छायाएं और
भरने लगता है धुंए और आग के बवंडरों से सकल व्योम
दुधमुंहे बच्चों को रौंदता गुजरता है कोई हिंसक लठैत
और सनाके से भरी दुनिया दुबक जाती है घरों में
कम है धरती उनके दुखों को
झोंक दिये गये हैं जो इस नामुराद जंग में
मैं नागरिक कितना अकेला इबादतगाह से बाहर