भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नाम के आगे रकम / प्रमोद कुमार
Kavita Kosh से
हमारे घर में
खुल रहा यह किसका दरवाज़ा
ज़ोर से खटखटाते
कि हमारा बन्द था सब कुछ!
कहाँ बन्द थे
छप्पर छवाते
हमारे अनेक हाथ !
चूल्हे की आग पहुँचे घर-पर
चलते इतने सारे पैर !
हमारे देह में किसके अंग जोड़ेंगे ये दरवाजे़
कहाँ जाएगा हमारे छोटे घर में अटा
बहुत बड़ा बाहर ?
कहाँ जाएगा हमारा भीतर
जहाँ आँगन में माँ चलाती सूपा
और वहीं निर्भीक हो
घोंसलें बुनतीं गौरेये!
हमारे नाम
लिखे थे दूर से भी अन्दर बुलाने के लिए
हमारे नाम के आगे क्यों लिख रहे रकम !