भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निरमल दूहा (5) / निर्मल कुमार शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुख अर दुःख, दिन-रात ज्यूँ
इक जावे दूजो आय
निरमल, डरे क्यूँ रात स्यूं
नवो दिन उगसी, बतलाय !!४१!!

होणी तय हर चीज़ री
होणी न टाली जाय
होणी हवे, चोखे कारणे
निरमल, जो समझे, तर जाय !!४२!!

बिन परख्याँ मत बरतिये
बसतु कोई अजाण
पीतल- सोना रे फरक ने
निरमल, तप्याँ सके पैचाण !!४३!!

मिनख न पूरण हवे सके
पूरण हवे ईसर बण जाय
निरमल, जे मिनख ही बण सके
जनम सुफल हुय जाय !!४४!!

निरमल तो है बावलो
बेगो आपो खोय
धीरज-संतोष लुटे, ओ
दिन-दिन निरधन होय !!४५!!

बाँस, बांसुरी न बणे
जद तक, गढ़े न सरजक हाथ
तान सुरीली, तब बजे
जद साधक, फूंके निरमल श्वास !!४६!!

माटी सूँ माटी बणी
माटी में मिल जाय
निरमल माटी न मिटे

ज्ञान सुपातर दीजिये
निरमल, मन हो न शैतान
बम बणे - बिजली बणे
मूळ एक ही जाण !!४८!!

तुरत ही रचना रच सके
उण ने ईसर जाण
निरमल, मिनख न बण सक्यो
क्या रचसी, किण पाण !!४९!!

धाप्योड़ा ने और जिमावे
भूखे ने, मंगतो कह धकियावे
निरमल, बे चैन कदी न पावे
मार आतमा, खुद मर जावे !!५०!!