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निश्चय ही वहां / प्रेमशंकर रघुवंशी
Kavita Kosh से
छत के गमलों में गुलदाउदी
अबकी इतनी फूली इतनी
कि पत्ते तक नज़र नहीं आते
निश्चय ही तुमने जूडे में
वेणी सजाई होगी वहाँ
दिनों बाद बादलों के छँटते ही
सुबह से दमक रहा सूरज
निश्चय ही तुमने भाल पर
रोली की टिकुली लगाई होगी वहाँ
कल ही मणिहारिन
तुम्हारे लिए चूड़ियाँ दे गई
निश्चय ही तुम्हें रात भर
मंगल स्वप्न आते रहे होंगे वहाँ
आज तो उठते ही
घर में लगी तुम्हारी तस्वीर से
ढेरों बातें करती रही हमारी नन्हीं कृति
निश्चय ही तुम्हें दिनभर
हिचकियाँ आती रही होंगी वहाँ।।