भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पकने दे तप के बोल / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
पकने दे तप के बोल, बनें नभ के रस-घट अनमओल!
कू-कू कुहुकिनियों की रट से रीझा आता ऋतुराज;
पी-पी-पी पिहक पपीहों की लाती सावन के साज;
बजने दे अन्तर खोल, सजे फिर यमुना-तट अनमोल!
बन-बन पर पियरि चढ़ती है तब आता है मधुमास;
घन-अंजन-दृग होकर ही नभ पाता है शारद हास;
चढ़ने दे चितवन-चोल, बने हिय पिय का पट अनमोल!
पचकर जीवन में पंक कला क बनता पंकज-देश;
तम पीकर अंक-कलंक कलंकी ही बनता राकेश;
पचने दे विष क घोल, मिलें तेरे भी नट अनमोल!
तारों के नग लगते ही नभ बन जाता है निशि-हार;
उर में लौ लगते ही माटी पाती है मणि-शृंगार;
लगने दे लोने दोल, नयन हों बंसीबट अनमोल!