भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पर यही समय है / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन गड़बड़
पर यही समय है
हाथ पकड़ कर चलने का

एक समय था
जब त्याग मुहब्बत ने
हमको था जोड़ा
पर लोभी
छली हवाओं ने
सबको पोर-पोर तोड़ा

नहीं मिले
मन ,यही समय है
मन से मन का मिलने का

जाति-धरम के
छल-प्रपंच को
चलो डुबायें सागर में
विष-विरोध में
निकलें मिलकर
अमरित भरकर गागर में

टूट गये
जो , यही समय है
रिश्तों के फिर जुड़ने का

हिलमिल कर
बोलें बतियायें
आखर-आखर नेह भरें
वक्त हुआ
जो मैला-मैला,
उसको मिलकर साफ करें

बिला गये
जो, यही समय है
फिर नये मूल्य रचने का