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परम्परा / पंकज त्रिवेदी
Kavita Kosh से
ढलान से
चट्टानों पर गिरता झरना
चोट खाकर
पिघले सोने में बदल जाता है
सोना पिघलकर नए रूप में
मूल्यवान
हम चोट पर चोट खाते हुए
लहूलुहान
अंदर-बहार से मलिन
प्रकृति से विमुख
ये परम्परा... ब्रह्म से मिली है
क्या...?
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : स्वयं कवि