भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पाँव पूजते थे कल तक जो / नईम
Kavita Kosh से
पाँव पूजते थे कल तक जो-
वही आज पूजेंगे माथे,
रोक न पाएँगे गोबर को
बूढ़ सयाने होरी माते।
आदमख़ोर शिकारी के दिनमान लद गए।
घायल सिंह, सूकरों के भी पाँव सध गए;
फटे दूध-से बिगड़ गए
मनसाई के ये सारे लाते।
सूरज के रथ में कब तक ये जुते रहेंगे?
राख धूल से चेहरे कब तक पुते रहेंगे?
नाथ लिया जी-भर पशुओं-सा,
और न कोई इनको नाथे।
मुझे वर्ग से पहले आशंका वर्णों की,
धर्मराज बारी आई है अब कर्णों की;
स्वर्णछत्र के रहते बागी
हो जाएँगे लाठी-छाते।