भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाकशाला का गीत / प्रेमशंकर रघुवंशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जीरे की छौंक
और हूँ
लहसुन की चटनी
मका बाजरा की रोटी मैं
सौंधी गंध सनी
चौकी बेलन की संगत पर
मैं तो दिनभर गाती
दाल भात की खुशबू से मैं
हर दिन खूब नहाती
मैं चूल्हे की आँच
और हूँ सब्ज़ी की ढकनी
हाथों पिसा मसाला हूँ मैं
हूँ अचार की बरनी
काली मिर्च हींग की डिबिया
जीरामन की फकनी
गुड़-सत्तू का स्वाद और हूँ
सादी नमक भुरकनी
भरी डकारें सुनकर मेरा
रोम-रोम सुख पाता
जब तक खिला न दूँ घर भर को
मुझे चैन न आता
मुझमें सबके प्राण और मैं
सबकी तृप्ति-मणी