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पारसनाथ / प्रभाकर गजभिये
Kavita Kosh से
देख अतीत का स्वर्णिम इतिहास
मन हुआ बहुत उदास
सुदूर देशों तक व्यावसायिक हलचल
बेबीलोन के बाज़ारों में
पहुँची थी ढाका की मलमल
पर भारत का बुनकर
आज उजड़ गया है
पुश्तैनी धन्धे में भी
ख़ूब पिछड़ गया है
कोटा साड़ी रही है रो
अपना वैभव रही है खो
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की
अब खूब रेलम-पेल है
कुटीर-उद्योगों का तो
ख़तम हो रहा बस खेल है!