प्यार नहीं तन का बन्दी / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
प्यार नहीं तन का बन्दी
तो मन का भी
कैदी वह कैसे?
रँग बिना श्रीहीन सुरभि सब,
गीत बिना झंकार अधूरी;
फिर भी केवल रूप-तृषा से
हो पाती यह प्रीति न पूरी!
नज़रों पर दिल के जादू से
एक नशा-सा चढ़ जाता है;
मिट-मिट जाती सरस विभा में
वह अपरूप-रूप की दूरी!
स्वप्निल,सहज प्रणय की प्रतिमा,
जग न कभी हो पाता वैसा;
रूप न नयनों का बन्दी
तो दिल का भी
कैदी वह कैसे?
छिछला नेह देह-शोभा का,
दरस-परस अनिवार नहीं जी!
प्रेम कभी तन की दूरी का
मन पर दुर्वह भार नहीं जी!
अंत:पुर में जो लय बजती
वह बनती द्वारों की भाषा
यह अनुराग राग जीवन का
लोलुप का उद्गगार नहीं जी!
रोम-रोम में गति की यति भर
संयम पाता तोष निरंतर;
तोष न बाहर का बन्दी
तो भीतर का
कैदी वह कैसे?
खूब रहे ये प्रश्न अनोखे,
-खुद ही बाँध लिया अपने को!
सत्य पुकारे दिशियों में खुल
फिर क्यों दुलराना सपने को,
‘निज’ से ‘पर’ की ओर चले जो,
उसका तन भी मन बन जाता;
सुलग रही बन आगी जो,
उसकाती रहती तपने को!
‘एक’ निरर्थक है,जब तक वह
आप ‘अनेक’नहीं बन जाता;
मर्म नही मति का बंदी
तो गति का ही
कैदी वह कैसे?