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प्रकट हुईं वृषभानु-राजगृह राधा / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रकट हुर्ईं वृषभानु-राजगृह राधा परम प्रेम की खान।
 जिन के शुचि माधुर्य दिव्य पर मोहित नित स्वयं भगवान॥
 जिन का बढ़ता रहता प्रतिपल नित नूतन सच्चिन्मय रूप।
 रसवर्षिणि, रसराजाकर्षिणि, प्रियतम-मन-हर्षिणी अनूप॥

 नित्य कुंजेश्वरि, रासेश्वरि, हरि-हृदयेश्वरि अति पावन।
 प्राणाधि का प्रियतमा प्रिय की प्राणेश्वरि नित मन-भावन॥
 काम-कलुष-हारिणि, विस्तारिणि दिव्य त्यागमय प्रेम पुनीत।
 अतुलनीय ऐश्वर्य-स्वामिनी, पर अति दीना, सहज विनीत॥

 देतीं सदा सहज प्रियतम को अविरत वह अपार सुखदान।
 पर देने का स्मरण न रहता, कभी नहीं होता अभिमान॥
 चतुर-चिहारिणि, संचारिणि अहंरहित शुचि सेवा-भाव।
 सहज सदा वर्धित होता है जिन में प्रिय-सेवा का चाव॥

 इसीलिये वे नित्य पूर्णतम, पूर्ण काम, श्रीकृष्ण अकाम।
 राधा के रस-‌आस्वादन की नित इच्छा करते अभिराम॥
 क्योंकि पूर्ण उस में है पावन राधा का आत्यन्तिक त्याग।
 अतः स्व-सुख-कल्पना-शून्य वह रखतीं प्रियतम में अनुराग॥

 वही प्रेमरूप राधा हैं प्रकटी बरसाने में आज।
 इसीलिये सब प्रकृति कर रही स्वागत सजकर सुन्दर साज॥
 सभी लोक-लोकान्तर में है गूँज रहा जय-जय-जय-घोष।
 परमानन्द छा रहा अनुपम, नहीं किंतु उस में संतोष॥
 
 किसी तरह वह व्यक्त नहीं हो सकता मन का परमानन्द।
 नहीं शब्द-संकेत कि जिन से प्रकट हो सके वह स्वच्छन्द॥