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प्रेम का स्पर्श / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

हे भुवन,
मैंने जब तक
तुम्हें प्यार नहीं किया था
तब तक तुम्हारा प्रकाश
खोज-खोज कर (भी) अपना सारा धन नहीं पा सका था !

उस समय तक
समूचा आकाश
हाथ में अपना दीप लिये
हर सूनेपन में बाट जोह रहा था.

मेरा प्रेम गाता हुआ आया,
फिर न जाने क्या काना फूसी हुई,
उसने डाल दी तुम्हारे गले में
अपने गले की माला !

मुग्ध नयनों से हँसकर
उसने तुम्हें चुपचाप कुछ दे दिया,
ऐसा कुछ जो तुम्हारे गोपन ह्रदय पट पर
चिरकाल तक बना रहेगा,तारा-हार में पिरोया हुआ !

१२ जनवरी १९१५