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बसंत / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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ताजा है अभी भी
तुम्हारे होंठों का चुंबन
गुलाब की पंखुड़ियों-से अधर
काँपते हुए
मेरे चुंबन के अंदर
घुल रहा है अभी भी स्वाद
कैसे शांत-सी खड़ी थीं तुम
मेरे आलिंगन में
स्तब्ध-सा समय
फूट रहा था चारों ओर
अपने वलय में
निकल गये थे दूर
उन कुछ क्षणों में
जिनकी याद
अभी भी रुलाती है
नहीं पता तुम्हें भी
क्या उन क्षणों की याद आती है?