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बसंत से बातचीत का एक लम्हा / धूमिल
Kavita Kosh से
वक़्त जहाँ पैंतरा बदलता है
बेगाना
नस्लों के
काँपते जनून पर
एक-एक पत्ती जब
जंगल का रुख अख़्तियार करे
आ !
इसीलिए कहता हूँ, आ
एक पैना चाकू उठा
ख़ून कर
क्यों कि यही मौसम है :
काट
कविता का गला काट
लेकिन मत पात
रद्दी के शब्दों से भाषा का पेट
इससे ही
आदमी की सेहत
बिगड़ती है ।
हलका वह होता है,
लेकिन हर हाल में
आदमी को बचना है
गिरी हुई भाषा के खोल में
चेहरा छिपाता है
लेकिन क्या बचता है ?
बचता कत्तई नहीं है।
ऎसे में
ऎसा कर
ढाढ़स दे
पैसा भर
इतना कह
भाई रे !
करम जले मौसम का
नंगापन
नंगई नहीं है।
आ मरदे !
बैठा है पेड़ पर
विधवा के बेटे-सा
फक्कड़-मौलान
नीचे उतर
आदमी के चेहरे को
हँसी के जौहर से
भर दे।
परती पड़े चेहरों पर
कब्ज़ा कर।
हलकू को कर जबर।