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बादल गरजे / देवेन्द्र आर्य
Kavita Kosh से
घनन घनन घन बादल गरजे
बिजली चम-चम-चम,
हाथ उठाकर धरती बोली
बरसो जितना दम ।
नदिया चढ़ी, सरोवर बोले
भूल किनारों से,
प्यार बढ़ाओ
बात करो इन उच्छल धारों से ।
प्रखर चुनौती खड़ी सामने
आँक रही दम खम ।
फुनगी चढ़े पात-पात यूँ
करते गुपचुप बात,
इंद्रधनुष की पहन ओढ़नी
निकली है बरसात ।
अधगीली मिट्टी में अँखुआ
नाचे छम-छम-छम।
अँगड़ाई ले उठा गाँव
कि अधमुरझाए पेड़,
हवा बावरी वन-वन डोले
रस की मार चपेड़ ।
झूम झूम कर कहे जिंदगी
जग है, जग से हम ।
बूँद-बूँद कर रिसता पानी
मन में अगन भरे
मनभावन की सुधि नैनन में
सौ-सौ रूप धरे ।
घन, बरसो पिय के आँगन
पर कहना दुःख कम-कम ।
घनन घनन घन बादल गरजे
बिजली चम-चम-चम ।