भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बारूद / केशव
Kavita Kosh से
उसे घर से नहीं कोई उम्मीद
न दुनिया से
फिर भी
उम्मीद है
घर छोड़ आएगा उसे
दहलीज़ तक
और दुनिया
चौराहे तक
उसके आगे
अकेला होगा वह
उस पड़ाव तक जहाँ से
न घर दिखाई देता है
न दुनिया
बस, उसके पास होगा
घर और दुनिया से
बचाकर रखा थोड़ा-सा बारूद
जो फूटता रहेगा
सदियों तक।