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बालकनी लव / मुकेश निर्विकार

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सुनो प्रिये!
जीवन की इस जरायु में
मिटते वजूद को समेटने की
अंतिम कोशिशों के बीच
घर के/ उपेक्षित परिवेश से संत्रस्त होकर,
अक्सर,

आ बैठता हूँ में छड़ी थामे,
अपनी बालकनी में।

अतीत के गवाक्ष से, आज भी, मुझे
सामने मकान की बालकनी में
तुम दिख जाती हो
मेरा यौवन-कलश थामे हुए।

मैं बरबस जीने लगता हूँ/एक बार फिर से
अपने यौवन को...
मेरी बुजुर्ग देह में आज भी
उल्लास की नदी बहने लगती है!

यही सब घटित होता होगा वहाँ,
तुम्हारे भी अंतस् में, प्रिये!
यह सब
हमारे बालकनी लव के
अमिट अहसास हैं,

हमारी चाहतों के ये गहरे रंग
मिट नहीं सकते
हमारे बाद भी।