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बिरह-दुख सजनी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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बिरह-दुख सजनी ! अति सुखरूप।
प्रियतम की प्रिय सुधि कौ सुन्दर साधन परम अनूप॥
गृह-धन-जन-परिजन-सबकी सुधि विसरावत ततकाल।
हिय महँ लाय बसावत मंजुल मोहन-सुधि सब काल॥
छलकत रहत सदा हिय महँ सुचि प्रेमामृत सुख-सार।
सकल अंग नित रहत रस-भरित, जग की सुरति बिसार॥
बिरहानल अति प्रबल करत जग की ज्वाला कौं छार।
करत सुसीतल रूप-सुधा-सागर गँभीर महँ डार॥
दरसन-रुचि पल-पल बाढ़त, पल-पल उतकंठा-जोर।
निसि-दिन एक मधुर चिंतन, कब मिलिहैं नंद-किसोर॥