बुझा हुआ दीपक / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
(1)
करने चले तंग पतंग जला कर मिटी में मिट्टी मिला चुका हूँ ।
तम-तोम का काम तमाम किया दुनिया को प्रकाश में ला चुका हूँ ।
नहीं चाह सनेही सनेह की और सनेह में जी मैं जला चुका हूँ ।
बुझने का मुझे कुछ दुःख नहीं पथ सैकड़ों को दिखला चुका हूँ ।।
(2)
लघु मिट्टी का पात्र था स्नेह भरा जितना उसमें भर जाने दिया ।
धर बत्ती हिय पर कोई गया चुपचाप उसे धर जाने दिया ।
पर हेतु रहा जलता मैं निशा-भर मृत्यु का भी डर जाने दिया ।
मुसकाता रहा बुझते-बुझते हँसते-हँसते सर जाने दिया ।
(3)
परवा न हवा की करे कुछ भी भिड़े आके जो कीट पतंग जलाए ।
जगती का अन्धेरा मिटा कर आँखों में आँख की पुतली होके समाए ।
निज ज्योति से दे नवज्योति जहान को अन्त में ज्योति में ज्योति मिलाए।
जलना हो जिसे वो जले मुझ-सा बुझना हो जिसे मुझ-सा बुझ जाए ।।