भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुनाई का दुख -1 / कमल जीत चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंग-बिरंगे
कच्चे-पक्के
पतले-मोटे
रेशमी सूती धागे लेकर
बुनती हूँ रोज़ अपना आप —

तुम एक ही झटके में
उधेड़ देते हो मुझे
मेरी प्रत्येक बुनाई का अन्तिम सिरा
तुम्हारे पास है ।