भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बैण्ड बाजे वाले / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है
लगभग आखि़री धुन होती है
दुलहन के द्वार पर जिसे बजाते हैं बैण्डवाले
वे खामोश उदासी में प्राण फूंकते हैं
हवा उनके संगीत पर नृत्य करती है
उनके चेहरे पर इकट्ठा रक्त
शर्माती दुलहन के चेहरे को मात देता है

तानसेन की आलाप से ऊंचे स्वरों में
उनका क्लेरेनेट अलापता है राग दीपक
तभी हर शाम उनके घर चराग़ जलते हैं

पृथ्वी की छाती में धड़कता है उनका बैण्ड
मरे हुए चमड़े से निकलती है आवाज़
जीवन का स्पन्दन बन जाती है

पांवों में थिरकन पैदा करती है
उनके पसीने की महक से सराबोर धुनें
सभ्यता की खोल से बाहर आते हैं आदिम राग
पीढ़ियों का अंतर ख़त्म हो जाता है
उनकी परम्परा में शामिल है सबकी भूख
उनके पेशे में उनकी अपनी जाति
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर उत्सव में
पीटा जाता है उनकी अहमियत का ढिंढोरा
उनके संगीत से देवता जागते हैं
उनके संगीत से देवता प्रसन्न होते हैं

अपनी कला में सिद्धहस्त होने के बावजूद
कलाकार के उतरे हुए विशेषण में
वे बाजेवाले कहलाते हैं
सदियों से मिली उपेक्षा और अपमान
फटे ढोल की तरह गले में लटकाए
प्लेट और पेट के तयशुदा
अनुपात वाली दावतों में
जूठन की तरह बचे रहते हैं वे

एक सुरीली तूती की तरह बजते हैं बैण्डवाले
इस बेसुरी दुनिया के नक्कारखाने में।

-2002