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ब्रह्मानंद वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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शान्ति पाठ
परिपूर्ण प्रभु परमात्मन, गुरु शिष्य की एक साथ ही ,
दोनों की ही रक्षा करें , पालन करें ,एक साथ ही.
तुम दोनों की शिक्षा व् अध्ययन शुद्ध और विशेष हों,
सब द्वेष शेष हों, स्नेह सूत्र में, त्रिविध ताप निषेध हों.

प्रथम अनुवाक

ऋत ब्रह्म ज्ञानी प्राप्त कर लेता है उस परब्रह्म को,
सत्यस्वरूपी ज्ञान रूपी , अनादि ब्रह्म अगम्य को.
स्थित हृदय रूपी गुफा में, व्योम व्यापी तथापि है,
तत्वज्ञ से ज्ञातव्य महिमा, अन्य से न कदापि है॥ [ १ ]

अति -अति प्रथम परब्रह्म से , नभ तत्व अथ निःसृत हुआ,
उससे ही अग्नि, वायु, क्रमशः, जल पृथा आकृत हुआ.
फ़िर उससे औषधि, अन्न, मानव, अन्न रसमय मूल हैं,
पक्षी के सम मानव शरीरी, प्रत्यंग अंग समूल है॥ [ २ ]

द्वितीय अनुवाक

भू लोक वासी प्राणी सब, इस अन्न से ही निष्पन्न हैं
अन्न से ही जीते, अंत में, अन्न में ही निमग्न हैं.
सर्वोषधम , यह ब्रह्म रूपी, अन्न जो आद्यंत है,
अथ प्राणी अन्न को , अन्न प्राणि को , खाते अन्न अनंत हैं॥ [ १ ]

इस अन्नमय स्थूल देह से, सूक्ष्म देह तो भिन्न है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः अनुरूप भी है अभिन्न है.
यदि कल्पना खग रूप में तो , प्राण सिर पुच्छं धरा,
व्यान दांयाँ , अपान बायाँ , पंख नभ आत्मा करा॥ [ २ ]

तृतीय अनुवाक

विश्वानि मानव, देव, पशु के, प्राण ही आधार हैं,
यही प्राण जीवन, प्राण आयु, प्राण प्राणाधार हैं.
परब्रह्म रूप में , प्राण को ही , जानते जो उपासते,
तत्वज्ञ वे ही अमर प्राण के ब्रह्म रूप को जानते॥ [ १ ]

प्राणमय उस पुरूष से तो मनोमय अति भिन्न है,
मनोमय ही प्राणमय में व्याप्त है व् अभिन्न है.
खग कल्पना में यजुः सिर , ऋग, साम दोनों दो पंख हैं,
सम पूँछ मंत्र अथर्व के , आधार सौख्य असंख्य हैं॥ [ २ ]

चतुर्थ अनुवाक

मन सहित, वाणी, इन्द्रियाँ भी, जा नहीं सकतीं वहाँ,
परब्रह्म का ब्रह्मत्व स्थित वास्तविकता में जहों.
उस ब्रह्म का ज्ञाता , कदाचित न कभी भयभीत हो,
मन, देह दोनों की आत्मा , परमात्मा से प्रणीत हो॥ [ १ ]

मन प्राण में जो आत्मा, विज्ञानमय है, सदैव है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः यह आत्मा भी तथैव है
सत्याचरण , ऋत पंख दो , श्रद्धा है सिर खग रूप में,
मध्य भाग है आत्मा, आधार महः यह अनूप में॥ [ २ ]

पंचम अनुवाक

विज्ञान ही सब यज्ञों का, कर्मों का विस्तारक महे,
सब देवता, बहु रूप में, विज्ञान के साधक रहे.
जो प्रमाद पाप विहीन हो, विज्ञान का ज्ञाता बने,
वही दिव्यता भोगाधिकारी का अधिष्ठाता बने॥ [ १ ]

विज्ञानमय जीवात्मा, परमात्मा से तो भिन्न है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः अनुरूप है व् अभिन्न है.
खग रूप में आनंद सिर, पुच्छं प्रतिष्ठा ब्रह्म का,
और मोद दायाँ, प्रमोद बायाँ पंख, ब्रह्म अगम्य का॥ [ २ ]

षष्ठ अनुवाक

यदि ब्रह्म नास्ति, असत है,यह भाव जिसमें प्रधान हो,
अनुसार वृति व् आचरण के उसके कर्म विधान हों .
यदि ब्रह्म आस्ति, सत्य है , यह भाव आस्तिक है महे,
निश्चित किसी दिन ब्रह्म मिलते, ज्ञानी जन ऐसा कहें॥ [ १ ]

वह है आत्म भू आनंदमय , आनंद अंतर्रात्मा,
हैं ब्रह्म के वे तो स्वयं ही , शरीरान्तर्वर्ती आत्मा .
उनमें शरीरी व् शरीर का भेद लय,यह विशेष है,
अपने की अन्तर्यामी वे अथ तुलना क्रम भी शेष है॥ [ २ ]

अथ यहाँ से अनु प्रश्न , कतिपय ब्रह्म है अथवा नहीं,
परलोक में विज्ञाता ब्रह्म का जाता है अथवा नहीं.
अविज्ञाता को भी क्या, परलोक अथ प्राप्तव्य है ,
हैं तथ्य सत्य -असत्य कितने तथ्य यह ज्ञातव्य है॥ [ ३ ]

है ब्रह्म एक , अनेक रूपों में, प्रकट विस्तृत हुआ ,
संकल्प तप, इस रूप में, कर सृष्टि संवर्द्धित किया.
रचना अनंतर स्वयं सृष्टि , में ही बसता अगम्य है ,
जड़ , चेतना, आश्रय, अनाश्रय, ऋत, अनृत सब ब्रह्म है॥ [ ४ ]

सप्तम अनुवाक

जड़ चेतनात्मक यह जगत सब प्रगत पूर्व अव्यक्त था,
उस अव्यक्तावस्था में, यह सृष्टि जन्मी है यथा.
जड़ चेतनात्मक रूप में अथ ब्रह्म ने स्व को रचा,
इसलिए ही " सुकृत " नाम यथार्थ सार्थक है रुचा॥ [ १ ]

वह 'सुकृत' ब्रह्म यथार्थ रस आनंदमय रसरूप है,
इससे ही यह जीवात्मा , आनंद पाटा अनूप है.
यदि व्योम सम विस्तृत मुदितमय, ब्रह्म न होता यहाँ ,
तो कौन प्राणों की क्रिया को संचरित करता कहाँ॥ [ २ ]

जब -जब कभी जीवात्मा व्याकुल हो ब्रह्म अगम्य को,
अनुपम, अगोचर, और विदेही परम आश्रय ब्रह्म को,
तब-तब हो निर्भय , ब्रह्म स्थिति लाभ करता जीव है,
बहु शोक भय से हीन अभयम , पद को पाता जीव है॥ [ ३ ]

जीवात्मा यदि ब्रह्म से, किंचित भी रहता दूर है,
तो जन्म -मृत्यु रूपी भय उस जीव को भरपूर है.
एक मात्र अज्ञानी ही उस भय से न केवल ग्रसित है,
ज्ञानाभिमानी में भी भय तो जन्म-मृत्यु का निहित है॥ [ ४ ]

अष्टम अनुवाक

अथ जन्म-मृत्यु के मूल भय से पवन चलता सूर्य भी
होता उदित और अस्त , अग्नि व् इन्द्र संचालित सभी,
इसी भय से ही मृत्यु होती, प्रवृत अपने कर्म में,
अथ ब्रह्म संचालक नियम का, रखता सब स्व धर्म में॥ [ १ ]

यदि कोई असाधारण युवक और आचरण भी श्रेष्ठ हो,
वेदज्ञ शासन में कुशल , धन धान्य श्री भी यथेष्ट हो.
दृढ़ इन्द्रियों और अंग सब बलवान ओजस्वी रहे.
आनंद की मीमांसा में, तो श्रेष्ठतम उसको कहें॥ [ २ ]

जो भी मनुज के लोक संबन्धी शतं आनंद हैं,
समकक्ष उसके तो एक मनु गन्धर्वों का आनंद है.
मनुलोक और गन्धर्व लोकों के तो सुख वेदज्ञ को,
हैं सहज प्राप्त स्वभाव से, संभाव्य सब श्रुति विज्ञ को॥ [ ३ ]

जो भी मनुज गन्धर्वों के सब एक सौ आनंद हैं ,
वह देव गन्धर्वों के केवल एक सुख मानिंद हैं .
निःस्पृह विमल सुख राशि मिलती सात्विक श्रुति विज्ञ को,
हो सहज ही संभाव्य अथ प्राप्तव्य है वेदज्ञ को॥ [ ४ ]

जो भी शतं सुख देव गन्धर्वों के कतिपय कथित हैं ,
वे चिरस्थायी पितृ लोक के पितरों के सुख विदित हैं ,
समकक्ष सौ सुख भी विरक्त को, करते न आसक्त हैं,
वे विज्ञ को आनंद , वे सब स्वतः प्राप्त हैं , व्यक्त हैं॥ [ ५ ]

अथ चिरस्थायी लोक पितरों के, जो भी आनंद हैं,
वह आजानज नाम सुख का, देवों का आनंद है .
उस लोक तक के भोगों की इच्छा नहीं , जिसकी कभी,
आनंद सिद्ध स्वभाव श्रोत्रिय , विज्ञ ऋत् निस्पृह सभी॥ [ ६ ]

जो नाम आजानज विदित वे देवों के आनंद हैं,
सम कर्म नामक देवों के वे तो शतं मानिंद हैं.
ऐसे शतं आनंद निधि की कामना से रहित जो,
वेदज्ञ श्रोत्रिय को वही आनंद मिलता , विरत जो॥ [ ७ ]

जो कर्म देवानां देवों के शतं आनंद हैं ,
समकक्ष सौ सुख राशि की तुलना में एक आनंद है.
अमरों की भी सुखराशी की नहीं चाहना वेदज्ञ को,
सब सहज ही प्राप्तव्य उनको, चाहते जो अज्ञ को॥ [ ८ ]

जो देवताओं के शतं आनंद हैं वर्णित यथा,
समकक्ष सौ आनंद की , सुखराशि इन्द्र का सुख तथा.
किंचित कदाचित भी न विचलित , कर सके वेदज्ञ को,
मिलता स्वतः ही सहज सुख , जो जानते सर्वज्ञ को॥ [ ९ ]

यह जो शतं आनंद इन्द्र के उससे भी अतिशय महे,
आनंद बढ़ कर सौ गुना, यह सुख बृहस्पति का अहे.
पर जो बृहस्पति तक के भोगों में भी निःस्पृह विरल है,
उस वेद वेत्ता को स्वतः ही प्राप्त सुख सब सरल हैं॥ [ १० ]

ये जो बृहस्पति के शतं आनंद हैं अतिशय महे,
उससे भी बढ़ कर प्रजापति के , सुख विरल अद्भुत अहे.
पर जो प्रजापति तक के भोगों , में भी निःस्पृह विरल हो,
उस परम श्रोत्रिय को स्वतः सुख प्राप्त है और सरल हो॥ [ ११ ]

यह जो प्रजापति के शतं सुख राशि हैं आनंद हैं,
वह ब्रह्मा के तो एक सुख समकक्ष का आनंद है.
ऐसे परम आनंद से वेदज्ञ जो भी विरत है ,
निष्कामी को आनंद ऐसा , सहज मिलता सतत है॥ [ १२ ]

परमात्मा जो है मनुष्यों में वही आदित्य में,
एकमेव अन्तर्यामी ब्रह्म ही बसता नित्य अनित्य में.
वह अन्न, प्राण मनोमय, विज्ञानमय , आनंद को,
तत्वज्ञ क्रमशः प्राप्त हो, अथ ब्रह्म सच्चिदानंद को॥ [ १३ ]

नवम अनुवाक

मन सहित वाणी इन्द्रियां भी लौटती जाकर जहों,
उस ब्रह्म के आनंद ज्ञाता को भला भय हो कहों.
वह सर्वथा निर्भय सभी, संताप से भी मुक्त हो,
उसको अभय अनुदान हो, यदि ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ १ ]

तत्वज्ञ सात्विक वृतियों से ही दुःख सुख सम्यक करे,
अथ पाप पुण्यों का आचरण, सीमा से हो जाता परे .
उसे लोभ, भय जीवन मरण संताप, मोह भी शेष है,
तत्वज्ञ इस विधि आत्मा की, रक्षा करता विशेष है॥ [ २ ]