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भय देखे हमने बहुतेरे
बड़बोले ओ साथी मेरे!
ओह! छूटे खैनी की फँक्की
मूर्ख है तू सनकी है झक्की!
गूँजे यदि जीवन, कूके मयूरी
खाने को मिलते तब हलवा-पूरी
पर लगता है रह जाएगी अब
यार तेरी यह चाहत अधूरी
(रचनाकाल : अक्तूबर 1930, तिफ़लिस)
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भय देखे हमने बहुतेरे
बड़बोले ओ साथी मेरे!
ओह! छूटे खैनी की फँक्की
मूर्ख है तू सनकी है झक्की!
गूँजे यदि जीवन, कूके मयूरी
खाने को मिलते तब हलवा-पूरी
पर लगता है रह जाएगी अब
यार तेरी यह चाहत अधूरी
(रचनाकाल : अक्तूबर 1930, तिफ़लिस)