भूमिकाः आदिम लोकराग तलाशती कविताएं-श्री रमेश दत्त दुबे
हमारे समय में तो पुस्तक से भूमिका और मनुष्य से आश्चर्य दोनों विलुप्ति के कगार पर हैं । वह आश्चर्य ही तो है जिसके चलते प्रकृति के नानावर्णी रूप उद्घटित हुए हैं । इसी आश्चर्य के सहारे कलायें अपने अर्थ और अभिप्रेतों के लिए प्रति-प्रकृति की संरचना करती रही हैं । पुस्तक की भूमिका-पुस्तक का आश्चर्य है, जयप्रकाश से वर्षों पूर्व रायपुर में एक संक्षिप्त सी मुलाकात हुई थी, उन्होंने मेरा लिखा पढ़ा भी अधिक नहीं है-हांलाकि वह अधिक है भी नहीं- फिर मुझसे भूमिका लिखवाने का क्या कारण हो सकता है । सोचता हूँ तो पाता हूँ कि आदिम लोकराग को सुनना-तलाशना ; हम दोनों को एक ही भावभूमि पर प्रतिष्ठित करता है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहीं लिखा है- ‘भावों के मूल और आदिम राग ही हमारे हृदय को अधिक छूते है और इसका कारण हमारे हृदय में प्रतिष्ठित वह वासना है जो हमारे जीवन की लय को ; कुल जीवन की लय से जोड़ती है – जिसका साहचर्य, परम्परा और संस्कृति का साहचर्य बनता है । ’
इस संग्रह की कविताएं ‘आदिम लोक राग’ को सुनती ‘ पृथ्वी में स्वर्ग की’तलाश करती कविताएं हैं । लेकिन मात्र इतना ही होता-
“गूँज रही चिकारे की लोकधुन / पेड़ के आसपास अभी भी
अभी भी छांह में बाकी है/ जंगली जड़ी-बूटियों की महक ”
तो यह एक ऐसी विवरणिका होती जो ‘आह मेरा लोक-वाह मेरा लोक’जैसे नास्टेलजिया में लोक को देखती बांचती कविता ही होती । लेकिन इन कविताओं में भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिकता के दबावों के चलते निरन्तर क्षरित और विकृत होते हुए लोक को बचाने की जो कोशिश है, उसके कारण इन कविताओं में ताप है, आक्रोश है, मुठभेड़ करने का हौसला है, गहरा आत्म विश्वास है-
“मेरे विश्वास की आवाज पर / शक रहा हो गुरुतर आपको / मुझे तो कतई नही ”क्योकि कवि ‘पहाड़ों के भूगोल से कहीं ज्यादा / हौसलों का इतिहास ’ पढ़ता है वह जानता है ‘तनी रीढ़ की हड्डी मर्मान्तक हार के बावजूद / हर जीत के लिये / हर बार / जरूरी है ।’
कवि का, कविता पर यह भरोसा पूरे संग्रह की कविताओं में छलछलाता है लेकिन यह आत्म विशास कहीं भी बड़बोलेपन या शहीदी मुद्रा में अभिव्यक्तनहीं होता क्योंकि वह एक ऐसी काव्य दृष्टि की मनौती करता है-
‘कैसे छुएं हर सम्बन्ध को
कि समूची पृथ्वी तब्दील हो जाये
एक छोटे कुनबे में’
ये कविताएं हमारे समय में, भाषा के बूझते संसार में, शब्द की प्रतिष्ठा के लिये भी मुठभेड़ करती हैं । ये कविताएं लोक के पास जाकर केवल हमारी कविता की शब्द सम्पदा ही नहीं बढ़ातीं, बल्कि कविता के ताप और संसार के लिये पदार्थ भी बचाती हैं –
‘ छेना आग का बचाये रखता है
बहुत समय तक ’ –(गोबर के बहाने तीन कविताएं कविता) के लिये दोनों चाहिए-हरसिंगार की तरह झरती भाषा और अपूर्व पदार्थमयता ।
इन कविताओं में वंचितों की अनेक अनुगूंजें सुनायी देती हैं, जो इतिहास को कटघरो में खड़ा करके कविता से इन्साफ मांगती हैं -
‘लंका विजय के पश्चात भी
लौट नहीं सके थे जो
अपने-अपने घर
फिर कभी
कहाँ हैं वे अनाम इतिहास में
फिलहाल
भटके बिना रचनी होंगी कविताएं
केवल उन्हीं अनामों के नाम’
(यहाँ मुझे कुंवर नारायण की एक कविता याद आती है लाक्षागृह, लेकिन राजन / लाक्षागृह में जो शव पड़े मिले / वे किसके थे) लोक ऐसे मिथक गढ़ लेता है, जो इतिहास में नहीं है । अपने न्याय से वह इतिहास के चरित्रों को चुस्त-दुरुस्त भी करता है । फैसला भी सुनाता है । जयप्रकाश वंचितों की इस परंपरा को इतिहास और उससे परे देखते हुए हमारे समय में अपने उत्तरदायित्व की भी घोषणा करते हैं-
“संताप में डूबते- उतराते रहोगे कब तक
देवकी के सात-सात शिशुओं की
जघन्य हत्या के लिये उत्तरदायी
कौन होगा
कंस या तुम / कंस या तुम / कंस या तुम”
इन कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि यें संदेश-उपदेश नहीं देती । किसी निष्कर्ष के लिये अन्त की ओर नहीं सरकतीं । ये कविताएँ अपने विचार-अनुभव को अपनी संपूर्ण संरचना को रचाती-पचाती हुईँ, किसी एक हिस्से को नहीं, संपूर्ण को रोशन करती हैं । जयप्रकाश में अपने समय के प्रति गहरा आक्रोश है-
‘फिर से विश्वासघात कर रहा है बादल
फिर से जलकुकड़ा सूरज जल रहा है’
कवि जानता है कि उसका समय- मुँह लटकाये खड़े, बिलकुल अनजान, टालू और कोढ़ी, रीढ़ हीन जन्तु, शुतुरमुर्ग लोगों का है, फिर भी मुठभेड़ के लिये वह अकेला ही योद्धा नहीं है- वीरवर, पराक्रमी और भी है गंगा-अवरतरण के लिये-
‘जाह्ववी के साथ
हममें से ही कोई
आयेगा एक दिन भगीरथ ’
कवि का यह विश्वास जहाँ रचना को बड़बोलेपन से बचाता है-
सूरज मुँह ढककर सो जाता है.......
जागते रहते सिर्फ जुगनू
सूरज चांद सितारे भले ही न बना जा सके
जुगनू तो बना ही जा सकता है’
वही रचना पर विश्वास में फलित और चरितार्थ होता है -
‘सब कुछ उखड़ने –टूटने के बाद भी
बचा रह गया
थिर होने की कोशिश में
कांपता हुआ एक पेड़......
बची रह गयी
पेड़ पर एक भयभीय चिड़िया भी
गीत सारे-के-सारे
बचे जो रह गये
ये कविताएँ भरोसे की कविताएँ है । इनके इस भरोसे में विचार भी शामिल है – ‘अगर कुछ नहीं हा रहा फिर से / तो सिर्फ / विचारों की लहलहाती फसल को / लेने की किसानी कोशिश’
विचारों से अटी पड़ी हमारी सदी में, कवि विचार को बचाने के लिये किसानी कोशिश की बात कर रहा है यानी कोठारों में सिते-रखे अन्न को, अपने समय में नवान्न में बदलने की पुनर्नवा करने की । इसलिए ये कविताएँ किसी विचार की पिछलग्गू नहीं हैं । रचना पर भरोसा ही विचार है-
‘बच्चे जब उकेर रहे होते
घास फूस वाली झोपड़ी
झोपड़ी के पास मीठे फल से लदे पेड़........
तब बिलकुल भूल जाते है
गाँव में घुसा आ रहा है बबंडर ........../
चित्ताकर्षक तस्वीर के लिये
बहुत जरूरी है
उन्हें चौकस रखे रंगो का कोई जानकार’
अमानवीयता के खिलाफ़, रचना के लिये जगह बनाना ही कवि का विचार है । यहाँ बड़ी आसानी से, ऐसी कविताओं को वाम रूझान की कविताएँ कह दिया जाता है जबकि ये कुल मनुष्यता की रूझान की कवितायें है, तभी तो कवि कहता है-
‘तलाशना होगा
सबसे उत्तम जीवन के लिये
अब तक अनुत्तरित आदिम प्रश्न का उत्तर’
इस संग्रह की कवितायें शिद्दत से अनेक कोणों से घर को याद करती हुई कविताएँ है-पूरी पृथ्वी को घर की तरह याद करती हुई ये कविताएं-
कैसे छुएं हर संबंध को
कि समूची पृथ्वी तब्दील हो जाये
एक छोटे से कुनबे में
गाँव में छूट गये एक अदद घर को तलाशती कविताएं भी हैं । माँ, पिता, भाई, बहिन, बहुएं, बच्चे के संसार से ही घर को नहीं पाती- उन्हें चाहिए---------“हवा और प्रकाश बटोरती खिडकी, खिलखिलाता हुआ आँगन / आँगन में चाहिए तुलसी चौरा-माँ की तरह, पृथ्वी को निर्भार करता लिपा-पुता घर आँगन’ ऐसा.........
जब कभी बन्द-बन्द से हो जायें हम
आकाश को निहार कर खुल-खुल जायें
अपने इस छूटे हुए घर को कवि गद्गगद् स्वर में याद ही नहीं करता बल्कि उसे बचाये रखने के लिये मुठभेड़ भी करता है-
हमारे घरों में
जितना पसरा है गाँव
उससे अधिक पसर गया है शहर
जितने असुरक्षित हम हमारे घरों में
उससे ज्यादा सुरक्षित
हमारे घर सपनों में हमारे
घर चार-दीवारों का रिहायशी मकान ही नहीं होता । लोक में समूचे गाँव को घर कहा जाता है । लोक मन व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक होता है । लोक में अकेला कुछ भी नहीं होता । उसकी तो रचना तक सामूहिक होती है । व्यक्ति और समाज के अद्वैत के अर्थ में लबें समय तक रची जाती है और अन्त में लोक की स्थायी स्मृति बन जाती है । यह स्मृति मर्तबान नहीं है, जिसमें रखा अचार बासा होकर भी सड़ने से बच जाता है । लोक इस बासेपन को निरंतर ताजा करता रहता है । बुन्देली में एक कहावत है- ‘बाप (दूध) बड़ो, बेटा (दही) बड़ो, नाती (छाछ) बड़ो अमोल, पे पनात (नवनीत) पैदा भयो तीनों तें अनमोल’ लोक की सामूहिकता और परम्परा को पुनर्नवा करने की शक्ति इन कविताओं में सतत प्रवाहमान है ।
बाजारीकरण निरंतर घरों को नष्ट कर रहा है । भावनात्मक स्तर पर भी और यथार्थ के धरातल पर भी । घर दुकानों में तब्दील हो रहे हैं । कभी मैने एक समीक्षा में लिखी थी- ‘अशोक बाजपेयी की कविताओं का भूगोल’ । हमारे समय में घर को याद करने वाले अशोक जी अकेले और अप्रतिम कवि हैं । अशोक जी की कविताओं में उनकी भोपाल-दिल्ली की कविताओं में ही नहीं, आविन्यों की कविताओं में भी उनके जनपद (सागर) का भूगोल धड़कता है । बरसों बाद जब बाजपेयी जी सागर आये तो अपने पुश्तैनी मकान को ही नहीं पहचान पाये । पूरा वार्ड बाजार बन गया है । तभी तो अशोक जी ने मुझसे कहा था – रमेश, इन घरों में जो लोग रहते थे, वे कहाँ चले गये ? हमारे समय में घर बेदखल हुआ सो रिश्तों-संबंधों की अजस्त्र प्रवहनी गंगा ही अवरूद्ध हो गयी है । घर जिसे आदमी ने अपनी सुरक्षा के लिये बनाया था, आज......बाहर से लहूलुहान आया घर / मार डाला गया / अन्ततः घर नहीं रहे सो आंगन भी नहीं रहे , जबकि
हो या न हो छत
हो या न हो फर्श
हो या न हो दीवालें
घर के भीतर
छोटा ही सही
होना ही चाहिए आंगन
आंगन नहीं रहा सो उसमें लगा पेड़ –
झूमते गाते पेड़
लहलहाते पेड़
मरकत द्वीप जैसे डोंगरी के
आदिवासी सपने संजोये पेड़
नही रह गये सो आंगन में उसकी पसरी छाया नहीं रही गयी, तोतो- चिड़ियों द्वारा खाये अधखाये फल नहीं रह गये, सावन में झूला डालने के लिये पक्षियों को रैनबसेरा के लिये उनकी शाखायें नहीं रह गयी है और यह सब सिर्फ इसलिये नहीं कि-
“छांह-निवासी
धूप की मंशाएं भाँपकर
इधर-उधर, आगे-पीछे, दाएं-बाएं
जगह बदलते रहते
दरअसल
पेड़ से उन्हें कोई लगाव नहीं होता ”
और न सिर्फ इसलिये कि
‘जाने-पहचाने पेड़ से
फल के बजाय टपक पड़ता है बम ’
बल्कि इसलिये कि हमारा समय उस अपसंस्कृति का शिकार हो रहा है जहाँ .....
‘होना
इफरात जगह
ढेर सारे असबाब के लिये
आदमी के लिये
नहीं के बरोबर
घर में’
जबकि हमारी संस्कृति में मनुष्य को सृष्टि का कर्ता बनाने पर नहीं, उसके साथ समरस होने, चर-अचर के प्रति सहज भाव से समर्पित होने पर बल दिया गया है । हमारी संस्कृति सृष्टि की प्रत्येक जीवात्मा के साथ साहचर्य की संस्कृति है । यह साहचर्य का भाव ही हमारे साहित्य का प्राण है –
‘भोर से पहले चिड़ियों की प्रभाती से कोसों दूर खड़े
उन सभी अपरिचितों के बिलकुल करीब
जो मुझसे भी उतने ही अपरिचित है
जानना चाहूंगा उतना
जिसके बाद जानने को शेषन रहे रंचमात्र मुझसे
जैसे नदी
जैसे पहाड़
जैसे छांह
जैसे आग
जैसे शब्द
जैसे भाषा
जैसे कविता
जैसे जीवन-राग’
ये कविताएं लोक के ऐसे अजान और संवेदनशोल हिस्सों की तलाश की कविता है जो यन्त्र सभ्यता के जरिये कुचले जाने के बाद, अब भूमंडलीकरण के आगे क्षत-विक्षत हो रहा है । मनुष्य का जीवन और जगत सब कुछ बेदखल हो रहा है । इस बेदखली से कविता का तो मानो संसार ही उजड़ा जा रहा है । यह कविता ही तो है इस विपुल प्रकृति से भी काम नहीं चलता, इसलिये वह प्रति प्रकृति रचती-बनाती है । ये कविताएं कविता की इसी शक्ति की आस्था की कविताएं हैं-
‘हर भाषा में साफ-साफ देखी जा सके
पृथ्वी की आयु निरंतर बढ़ते रहने की अभिलाषा’
जयप्रकाश मानस की ‘प्रार्थना’-
“इस समय सबसे ज्यादा जरूरी है मनोकामनाओं की आयु और बढ़े ”
के साथ, हम उनकी , उनकी कविता और यश की सुदीर्घ आयुष्य की कामना करते हैं ।
रमेश दत्त दुबे
कृष्ण गंज, पुलिस चौकी के सामने
सागर, मध्यप्रदेश