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भोर-बेला / अनिल शंकर झा
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मचलै भोररिया ऐंगनमा,
लचकै रे निमिया के डार।
तुलसी नें पीन्हलेॅ छै, मोती के गहना,
गेंदा सें हँसी-हँसी, बोलै छै बहना,
कुहरा के चादर उतार।
लेरूआ रं उमकै छै, अखनी ईजोर,
लाले-लाल उषा के अभियोॅ तैं ठोर,
उतरै नें रातकोॅ खुमार।
बगरो रं छपरी पर नपकी किरिनिया,
देखी केॅ मुस्कै छै ननदी मईनिया,
पलकोॅ पर लाजोॅ के भार।