भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भ्रम ही था / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसम के साथ-साथ बातें करना
था शायद एक बचपना
छूट गया

अब तो ये पिनकुशन, ये पेपरवेट
मेज़ के कलैण्डर को नई-नई डेट
थाली है
इसमें ही गुड्डू की तख़्ती है
अम्मा की रामायन
पत्नी की साड़ी है

गीतों का समझे थे जिसको गहना
जी हाँ ! वह इन्द्रधनुष
चूड़ी-सा टूट गया
छूट गया एक बचपना

सामन्ती रँगों को आँखों में बाँधना
बेमानी लगता है
शहर की हवाओं के भीतर का गाँव
उपले की आँच-सा सुलगता है

भ्रम ही था रूमानी चारण रहना
एक पके फोड़े-सा फूट गया
छूट गया एक बचपना