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मंजिल / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
सूरज डूब रहा है
और अँधेरा घिरने वाला है
मेरे आगे जो रास्ता है
काँटे बिखरे हैं उस पर
क्या करूँ मैं ?
बचा कर निकल जाऊँ इन्हें, बगल से
या चला जाऊँ छलाँग, इनके पार
क्या करूँ मैं ?
शायद आख़िरी यात्री हूँ
आज की साँझ
संभव है कोई आ रहा हो
मेरे भी बाद
उसे दिखेंगे नहीं अँधेरे में, ये काँटे
क्या करूँ मैं ?
रुक जाऊँ काँटो के पहले
सचेत करने के लिए आने वालों को
या चुन कर हटा दूँ राह से इन्हें
क्या करूँ मैं ?
मेरी मंज़िल दूर है, प्रभु
मगर
क्या यह मेरी मंज़िल नहीं ?