भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मदनाताल / प्रेमघन
Kavita Kosh से
मदना तालहु की दुर्दशा जाय नहिं देखी।
जहाँ जात हम सब जन दोऊ समय विसेखी॥453॥
जहँ बक सारस कलरव करत रहे निसि वासर।
सोहत बन पलास के मध्य कुमुदिनी आकर॥454॥
स्वच्छ बारि परिपूरित पंक हीन मन भावन।
हरित पुलिन नत दु्रम लतिकन सों सहज सुहावन॥455॥
नागपंचमी दिन जहँ गुड़िया जात सिराई.
जाकी वह छबि अजहुँ न मन सौं जात भुलाई॥456॥
तरु सिंहोर तटवर्ती बृहत रह्यो नहिं वह अब।
जा शाखा चढ़ि वर्षा मैं कूदत रहे हम सब॥457॥