भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ की मृत देह के पास बैठकर / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक

तुम्हारी देह के पास रखे
गुलाब के देखकर
बाबूजी ने कहा
तुम किसी को भी बगै़र इज़ाज़त
पौधे से फूल नहीं तोड़ने देती थी
माँ आज तुम खुद
पौधे से टूटकर
अलग हो गई हो
किसने तोड़ा तुम्हें
और किसने दी इज़ाज़त?

दो

तुम चुप हो माँ
वैसे भी तुम बोलती कहाँ थीं
चुप रहकर सहती रहीं जीवन भर
वह सब जो एक स्त्री को सहना पड़ता है

अभी अभी पिछले दिनों तो
तुमने बोलना शुरू किया था
हंसकर कहते थे बाबूजी
अब बुढ़ापे में यह बोलती है
मैं चुप रहकर सुनता हूँ

रो रो कर हम सब भी चुप हो गए हैं माँ
अब बोलो न तुम।

तीन

तुम्हारी निष्प्राण देह में
न कोई हलचल
न कोई स्पन्दन
कोई आवाज़ नहीं
उतार-चढ़ाव नहीं साँसों का

कैसे कहूँ
कि तुम सो रही हो
तुम तो खर्राटे लेती थीं सोते हुए
तुम्हें याद है
पच्चीस बरस पहले
बाबूजी एक टेप रिकॉर्डर लाए थे
तुम्हारे खर्राटे रिकॉर्ड कर
तुम्हें ही सुनाए थे
वरना तुम्हें तो यकीन ही नहीं होता था
कि तुम नींद में खर्राटे लेती हो

ढूँढ़कर लाऊँ माँ वो कैसेट
और तुम्हारे सिरहाने लगा दूँ
धूप-बत्ती और दिये के पास।

चार

ज्यों-ज्यों बढ़ रही है रात
हल्की हल्की ठंड लग रही है मुझे
तुम मजे़ से चादर ओढ़े सो रही हो माँ

मेरा मन कर रहा है
तुम्हारी चादर में घुसकर सो जाऊँ
और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
जैसे बचपन में सुलाती थीं।

पाँच

अभी अभी तुम्हें उढ़ाई हुई चादर हिली
मुझे ऐसा क्यों लगा माँ
जैसे तुमने साँस ली हो।

छह

परदेस में रहे पिता
वे नहीं मिल पाए
अपनी माँ से उनके आखि़री वक़्त में

मैं भी कहाँ मिल पाया माँ तुमसे
तुम्हारे आखि़री वक़्त में

यह रोज़ी-रोटी की कश्मकश
क्यों छीन लेती है आखि़र
एक बेटे से उसका हक़
और माँ से उसका।

सात

मौसी ठीक तुम्हारी तरह दिखाई देती है
मुन्नी और बबलू के चेहरे में भी
तुम्हारी ही झलक है

मेरा माथा तुम्हारे माथे की तरह
और बिटिया कोपल की ठोड़ी
ठीक तुम्हारी ठोड़ी जैसी

तुम कहती थीं तुम्हारी सूरत
तुम्हारी नानी से मिलती थी
जिसे तुमने कभी नहीं देखा

पुरखों से मिले अपने चेहरे को
देखते हुए मैं सोचता हूँ
कितना सीधा कारण है इस बात का
कि दुनिया में इंसानों की शक़्ल
आपस में क्यों मिलती है।

आठ

एक वादा करो माँ
जब भी आऊँगा इस घर में
तुम यहीं कहीं मिलोगी

मैं बैठूंगा ड्राइंगरूम में
तुम रसोई में सब्ज़ी छौंक रही होगी
मैं बेडरूम में सोता रहूंगा
तुम पीछे के कमरे में प्याज़ जमा रही होगी
जब मैं पीछे वाले कमरे में जाऊँगा
तुम छत पर टहलने चली जाओगी
मेरे छत पर जाते ही
तुम जा बैठोगी पड़ोस में

न मैं तुम्हें दिखूंगा
न तुम मुझे दिखोगी

बस ऐसी ही आँखमिचौनी में
बीज जाएँगी मेरी छुट्टियाँ।

नौ

कल तुम्हें सौंपना होगा अग्नि के हवाले
आखि़र तुम्हारी देह
इस रूप में तो हमारे साथ नहीं रह सकती
वैसे भी तुम अपनी देह के साथ
इस तरह कहाँ रहीं माँ
हमें चोट लगती थी
दर्द तुम्हें होता था
हमारे रोने पर
आँसू तुम्हारी आँख से निकलते थे
हमारे खा लेने से
पेट तुम्हारा भर जाता था
पूरी हो जाती थी तुम्हारी नींद
हमारे जी भरकर सो लेने से
हमारी देह को सक्षम बनाकर
तुम बिना देह के ही जीती रहीं

तुम्हारी जिस देह का
कल सुबह मुझे अंतिम संस्कार करना है
वह तो केवल देह है

दस

देह को मिट्टी कहते हैं
मिट्टी मिल जाती है मिट्टी में
महकती है
बारिश की पहली फुहार में

तुम भी महकोगी माँ
हर बारिश में।

-2001