भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ तुम्हारे द्वार आना चाहती हूँ / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ तुम्हारे द्वार आना चाहती हूँ
शीश चरणों में झुकाना चाहती हूँ

ज्ञान का भंडार कदमों में तुम्हारे
मैं जरा सी भीख पाना चाहती हूँ

जान से प्यारा वतन है अब इसे मैं
स्वर्ग से सुन्दर बनाना चाहती हूँ

प्यास कम होती नहीं है ज्ञान रस की
पा कृपा माँ की बुझाना चाहती हूँ

भक्त हैं जिस लोक में रहते तुम्हारे
मै वहीँ स्थान पाना चाहती हूँ

स्वर मधुर झंकारती वीणा तुम्हारी
मैं उसी से स्वर मिलाना चाहती हूँ

ज्ञान अंकन कर रहा पदचिन्ह है जो
उस चरण की धूल पाना चाहती हूँ ,