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माधव-सखा मनीषी उद्धव सहज / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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माधव-सखा मनीषी उद्धव सहज जान-विजान-निधान।
सदाचार-रत शुचितम नैष्ठिस्न्क वाग्मी सुप्रसिद्ध विद्वान॥
हरिसे सुनकर ब्रजकी बातें उनके मन आया आवेश।
कहा-’मिटा दूँगा मैं उनका दुःख वहाँ जा, दे उपदेश’॥
बतलाया हरिने इंगित से उद्धवको गोपिका-महव।
जान-गर्व कुछ था, इससे वे समझ नहीं पाये पर-तव॥
पहुँचे व्रज, बाबा-मैयासे मिले, देख उनका शुचि स्नेह।
देख बालकोंकी गति उद्धव चकित-थकित हो गये विदेह॥
गलित-जान-गौरव उद्धव ब्रज-बनिता‌ओंके आये पास।
देख श्याम-रसमय शुचि जीवन मन-ही-मन हो गये निराश॥
’?या सिखलान्नँगा मैं इनको-प्रेम दिव्यतमकी ये मूर्ति।
नहीं अभाव-कामना कुछ जिसकी हो इनको इच्छित पूर्ति॥
त्यागमयी प्रतिमा ये सचमुच, कृष्ण-प्राण-मनसे संयुक्त।
इनके समुख जान छाँटना है निश्चय अजान, अयुक्त’॥
तदपि गोपिका-मुख-निःसृत रस-सुधा दिव्यका करने पान।
मचल उठे जानी उद्धवके प्राण-चिा-मन, दोनों कान॥
अति विनम्र वे बैठ निकट, फिर करने लगे विविध आलाप।
देख-देख गोपीजन-मुख-भङिङ्गमा खो गये निजमें आप*॥