भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मारा के गलवात रे / जयराम दरवेशपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गरज गरज बदरा बरसइ दिन रात रे
आ गेलइ रिमझिम भइया बरसात रे

बंेगा टर-टर गीत सुनाबइ
झिंगुर बजबइ बाजा
झुकल कमिनियाँ कजरी गाबइ
मन मिजाज भेल ताजा
चुहचुह बगिया के हरियाली
से मनमा हुलसत रे

रह-रह कजरी गगना उमड़इ
भुइयाँ बादर कइले
जलमल खरूआ मोरी गललइ
अगिया भाग लगइले
ई कुमेहर बाउदर एसों
असरा दीया बुझात रे
पानी से भर गेल पथरिया
झलकइ कहाँ पगार
पिच्छुल रहिया टंगरी फिसले
कतनो चली निहार
झिकझीरइ हावा पुरबइया
छतरी कउन बिसात रे
अनहोनी हरसाल होवऽ हे
हम किसान के साथ
बादर पर हे खेती टिक्कल
फसल संजोगे हाथ
सब घर अँगना ओसर बंगला
मारा के गलबात रे।