भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे न मारो / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
मुझे न मारो
मान-पान से,
माल्यार्पण से
यशोगान से,
मिट्टी के घर से
निकालकर
धरती से ऊपर उछालकर।
मुझे न तोड़ो
कमल–नाल से,
तुहिन-माल से,
अश्रु-माल से,
लड़ लूँगा मैं
कुपित काल से,
अह-रह जलती
नरक-ज्वाल से।
मेरे साथी!
बंधु-घराती!
मेरी कविता
मुझे बताती :
खड़ी रहे लौ-
बुझे न बाती-
दंड-दमन से फटे न छाती।
रचनाकाल: ०५-०७-१९८०