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मुझे होना होता है / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
नहीं बरसता पानी
नहीं उपजता अनाज
इसी लिए
मुझे होना होता है
झळते-बळते थार में
और तू मुझ अकाल का
रोना रोता है!
अरे ओ मानवी!
नैतिकता
ईमानदारी
राष्ट्रीयता और शिष्टाचार में
मेरा होना तो
तेरे ही हाथों
थोपा-भरपा गया है
उसे क्यों नहीं कौसता
क्यों नहीं करता
जर सी भी कोशिश
तबियत से हटाने की
और
क्यों करने देता है मुझे
वहां अखूट आराम?
जिस दिन
तू अपने आस-पास से
हटा देगा ऎसे अकाल
तो सच मान
अपने आप चलाजाएगा
तेरी मरुधरा से
यह अकाल।