भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुनिया की शताब्दी / समीर बरन नन्दी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुल जाते है दरवाज़े ।
एक सीढ़ी साँप की तरह चल पड़ी है
एक पत्थर कारखाने में बदल गया है
एक तिनका, चिड़िया बन आकाश में उड़ रहा है ।

एक ओर दौड़ पड़ी हैं दूब की कतारें
रोटी से भर रहे है - ताल-तलैया
गाँव का कटा हाथ काम पर लग गया है
चल पड़ा है - कंकाल ।

चौड़े हो रहे हैं नौज़वानों के कन्धे
चाल में तलवार की चमकार
आखिरी ज़ंजीर कोई टूट गई है |

मुँह बा रही है दुनिया -
स्कूल जा रही है - मुनिया ।