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मुहब्बत का ज़माना आ गया / कविता किरण
Kavita Kosh से
मुहब्बत का ज़माना आ गया है
गुलों को मुस्कुराना आ गया है।
नयी शाखों पे देखो आज फिर वो
नज़र पंछी पुराना आ गया है।
जुनूं को मिल गयी है इक तसल्ली
वफाओं का खज़ाना आ गया है।
उन्हें भी आ गया नींदे उडाना
हमें भी दिल चुराना आ गया है।
छुपाया था जिसे हमने हमी से
लबों पर वो फ़साना आ गया है।
नज़र से पी रहे हैं नूर उसका
संभलकर लडखडाना आ गया है।
मुहब्बत तो सभी करते हैं लेकिन
हमें करके निभाना आ गया है।
हमें तो मिल गया महबूब का दर
हमारा तो ठिकाना आ गया है।
हम अपने आईने के रु-ब-रु हैं
निशाने पर निशान आ गया है।
अँधेरा है घना हर और तो क्या
"किरण"को झिलमिलाना आ गया है।