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मुहब्बत की क़ीमत चुकानी पड़ेगी / अमर पंकज

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मुहब्बत की क़ीमत चुकानी पड़ेगी,
रिफ़ाक़त तुझी से निभानी पड़ेगी।

गुलों में ठसक है, हवा फागुनी है,
नयी-सी ग़ज़ल गुनगुनानी पड़ेगी।

सज़ा क़ातिलों की मुकर्रर हुई है,
अदा क़ातिलों को दिखानी पड़ेगी।

मुझे रातरानी बुलाने लगी है,
उसे प्यार की धुन सुनानी पड़ेगी।

बदन की अगन बन खिले लाल टेसू,
मदन से लगन तो लगानी पड़ेगी।

पिला जाम साक़ी क़यामत तलक तू,
तुझे प्यास सारी बुझानी पड़ेगी।

हुनर-हौसला सब ‘अमर’ सीख ले तू,
दिलों में जगह तो बनानी पड़ेगी।