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मेघ सलोने / देवेन्द्र आर्य
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भारी-भारी बस्ते लेकर
मेघ सलौने फिर
सावन-भादौं की शाला में
पढ़ने आए हैं ।
जेठ दुपहरी देख
किसी कोने में दुबक गए
कभी देख पुरवाई नभ में
मन-मन हुलस गए ।
नन्ही-नन्ही आँखों में
खुशियाँ भर लाए हैं ।
कभी जेब से
ओलों की टॉफी ले निकल पड़े
कभी किसी कोमल टहनी पर
मुतियन हार जड़े ।
स्वाति बूँद बन कभी
सीप का मन हुलसाए हैं ।
नटखट बचपन बन
उलटा दी स्याही अंबर पर
इंद्रधनुष निकाल बस्ते से
फेंक दिया घर-घर ।
बिजली पर चढ़
ढोल नगाड़े
खूब बजाए हैं ।
कभी नदी के घाट नहाने
मिलकर निकले हैं
धरती के कण-कण को छूकर
हरषे-सरसे हैं ।
हंसों की पाँतों सा
सजकर
नभ पर छाए हैं ।