भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेघ सलोने / देवेन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भारी-भारी बस्ते लेकर
मेघ सलौने फिर
सावन-भादौं की शाला में
पढ़ने आए हैं ।

जेठ दुपहरी देख
किसी कोने में दुबक गए
कभी देख पुरवाई नभ में
मन-मन हुलस गए ।

नन्ही-नन्ही आँखों में
खुशियाँ भर लाए हैं ।

कभी जेब से
ओलों की टॉफी ले निकल पड़े
कभी किसी कोमल टहनी पर
मुतियन हार जड़े ।

स्वाति बूँद बन कभी
सीप का मन हुलसाए हैं ।

नटखट बचपन बन
उलटा दी स्याही अंबर पर
इंद्रधनुष निकाल बस्ते से
फेंक दिया घर-घर ।

बिजली पर चढ़
ढोल नगाड़े
खूब बजाए हैं ।

कभी नदी के घाट नहाने
मिलकर निकले हैं
धरती के कण-कण को छूकर
हरषे-सरसे हैं ।

हंसों की पाँतों सा
सजकर
नभ पर छाए हैं ।