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मेरे इस प्रणको सुन लो / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मेरे इस प्रण को सुन लो, हे मेरे प्राण-प्राण! सर्वस्व!।
छोडूँगी अब मैं न परम निधि बहुत दिनोंपर मिला निजस्व॥
तुम-मैं एक हृदय हैं दोनों, एक प्राण हैं दोनों नित्य।
जान रही मैं इसे-यही है हम दोनोंका ताविक सत्य॥
पर मैं नहीं जानती, नहीं बता सकती क्योंहु‌आ वियोग ?।
अति संतप्त जल रही थी, कर रही भयानक पीड़ा-भोग॥
यह भी सत्य, सदा देते रहते थे तुम दर्शन-‌आनन्द।
खेल रहे लीलामय तुम छिपने-दिखनेका खेल अमन्द॥
अब तो बाहर भी मैं तुमको सहज पा गयी हूँ प्रिय! आज।
भीतर-बाहर, पद-तलमें अब पड़ी रहूँगी तज सब लाज॥
खाने-पीने, सोने-‌उठनेमें मैं सदा रखूँगी साथ।
कभी नहीं हटने दूँगी, मैं नहीं हटूँगी, मेरे नाथ!॥
मिटी सभी ममता अग-जगसे, हु‌ई सभीमें समता प्राप्त।
रहा एक बस, तुममें ही मेरा सबन्ध मधुर नित याप्त॥
नहीं कामना भोग-मोक्षकी किंचित्‌ भय-लज्जा न विषाद।
हु‌ई मा पीकर मैं प्रियतम-प्रेम-सुधा-मद दिव्य प्रसाद॥
बोले प्रियतम-’राधे! हम-तुम नित संयुक्त नित्य हैं एक।
अमिलन-मिलन रस-सुधा स्वादन कर रखते सुप्रेम की टेक’॥