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मेरे मामा / नागेश पांडेय 'संजय'
Kavita Kosh से
जैसे मेरे, नहीं किसी के वैसे,
सबको मामा मिलें हमारे जैसे।
खूब हमारे साथ खेलते-खाते,
सैर कराने भी हमको ले जाते।
याद उन्हें कविताएं प्यारी-प्यारी,
उनके पास कथाएं ढेरों सारी।
घूम-घूम कर किस्से किए इकट्ठे,
दाँतों तले दबे उंगली, हाँ! ऐसे!
खेलें बालीबाल, कबड्डी, लूडो,
उछले, कूदें, हमें सिखाएं जूडो।
लड़ना-भिड़ना उन्हें नहीं भाता है,
एक-एक ग्यारह करना आता है।
जो माँगू सो हँसकर सदा दिलाते,
पर जाने क्यों कभी न देते पैसे?
देखा नहीं कभी उनको झुँझलाते,
जहां बैठ जाते हैं, खूब हँसाते।
दिखने में है सीधे-साधे फक्कड़
मगर बुद्धि से पक्के लाल बुझक्कड़।
सदा नियम से बँधकर रहते, करते
सारे के सारे ही काम समय से।