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मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर है / डी .एम. मिश्र

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मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर है
करना स्वीकार मगर हंसकर है

धान बोया था उगी घास मगर
सारा इल्ज़ाम मेरे सर पर है

वो जो बिल्कुल पसीजता ही नहीं
मोम हो करके भी वो पत्थर है

बाप ने फेसबुक से है जाना
आजकल पुत्र उसका अफ़सर है

मेरा उसका मुक़ाबला कैसा
बूंद हूँ मैं तो वो समंदर है

जोश में पर, वो समझता ही नहीं
मौन भी इक तरह का उत्तर है

मुझको इस बात की तसल्ली है
मेरा ईमान सबसे ऊपर है