भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं खुद ज़मीन हूँ मगर ज़र्फ़ आसमान का है / मोहसिन नक़वी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं खुद ज़मीन हूँ मगर ज़र्फ़ आसमान का है
कि टूट कर भी मेरा हौसला चट्टान का है

बुरा ना मान मेरे हर्फ़ ज़हर जहर सही
मैं क्या करूँ यही जायका मेरी जुबान का है

बिछड़ते वक्त से मैं अब तलक नहीं रोयी
वो कह गया था यही वक्त इम्तिहान का है

हर एक घर पे मुसल्लत है दिल की वीरानी
तमाम शहर पे साया मेरे मकान का है

ये और बात अदालत है बे-खबर वरना
तमाम शहर में चर्चा मेरे बयान का है

असर दिखा ना सका उसके दिल में अश्क मेरा
ये तीर भी किसी टूटी हुयी कमान का है

कफस तो खैर मुकद्दर में था मगर 'मोहसिन'
हवा में शोर अभी तक मेरी उड़ान का है