भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने अपना ज़मीर बेचा है / चेतन दुबे 'अनिल'
Kavita Kosh से
मैंने अपना ज़मीर बेचा है
लोचनों का भी नीर बेचा है
पीर पाने को बेच दी खुशियाँ
दिल की धड़कन औ धीर बेचा है
खुद ही मैं मुफलिसी के घर पहुँचा
मैंने आला अमीर बेचा है
अब न कुछ शेष रह गया यारो
द्रोपदी का भी चीर बेचा बेचा है
पतझरों में पली जवानी है
मैंने मन - काश्मीर बेचा है