भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने कभी सपना नहीं देखा था / वंदना मिश्रा
Kavita Kosh से
मां ने कभी सपना नहीं देखा था
मेरे लिए
पर मैं आ गई भाई से पहले।
सब जगह मैं भाई से पहले
सिर्फ माँ के मन को छोड़कर।
मैंने सेंध लगानी चाहिए उसके मन में
जब तक,
मां ने जो सपने देखे भाई के लिए
उनके कुछ बीज अनजाने में
गिर पड़े मेरे मन में,
और महा वृक्ष का रूप ले लिया उसने।
दौड़ती रही मैं माँ के सपनों को पूरा करने के लिए
और माँ भाई की तरफ़।
हम दोनों दौड़े अपनी-अपनी दिशा में,
अपने ही सपनों के महा वृक्ष को पहचानने से
इंकार करती है माँ,
सिर्फ स्थान बदल जाने से।
भले ही काट ले धूप में सारी उम्र
पर नहीं बैठेगी इस वृक्ष की छाया में
और मैं, इस महा वृक्ष को लेकर क्या करूं?
जो माँ को ही शीतल नहीं कर सकता।