भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये उजड़े बाग़ वीराने पुराने / हबीब जालिब
Kavita Kosh से
ये उजड़े बाग़ वीराने पुराने
सुनाते हैं कुछ अफ़्साने पुराने
इक आह-ए-सर्द बनकर रह गए हैं
वो बीते दिन वो याराने पुराने
जुनूँ का एक ही आलम हो क्यूँकर
नई है शम्अ' परवाने पुराने
नई मँज़िल की दुश्वारी मुसल्लम
मगर हम भी हैं दीवाने पुराने
मिलेगा प्यार ग़ैरों ही में 'जालिब'
कि अपने तो हैं बेगाने पुराने