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ये औरतें / रंजना गुप्ता
Kavita Kosh से
सदियों से
गले में आँसुओं को
घुटकती औरतें
सदियों से क्यों चुप रही औरतें
सदियों से ग़ुलामी की
अभ्यस्त औरतें
जब भी माँगती है अपने पुरुषों से
माँगती है बस
गहने, कपड़े, हीरे, जवाहरात
ज़मीन और जायदादें
पर क्यों नही माँग सकीं
वे मुर्दा औरतें
आज तक अपने पुरुषों से
अपने लिए, अपनी आज़ादी
अपने फ़ैसले
अपनी अस्मिता
अपना वजूद !