भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रह गई / विजय वाते

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो कभी थी एक हकीकत अब कहानी रह गई
गोद बाकी के गणित की तर्जुमानी रह गई

जब ढाले रंगीन शीशों में तो हो रंगीन वो
यों गजल तो अब महज बेरंग पानी रह गई

शाहजादों के करिश्में और परियों की कथा
आज के बच्चों की जैसे बूढ़ी नानी रह गई

गर्दनें तारीफ़ में हर शेर पर हिलती रही
शेष केवल दाद में बस दुम हिलानी रह गई