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राग गौड़ी / पृष्ठ - १५ / पद / कबीर

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कहौ भइया अंबर काँसूँ लागा, कोई जाँणँगा जाँननहारा॥टेक॥
अंबरि दीसे केता तारा कौन चतुर ऐसा चितवनहारा॥
जे तुम्ह देखौ सो यहु नाँही, यहु पद अगम अगोचर माँही॥
तीनि हाथ एक अरधाई, ऐसा अंबर चीन्हौ रे भाई॥
कहै कबीर जे अंबर जाने, ताही सूँ मेरा मन माँनै॥141॥

तन खोजौ नर करौ बड़ाई, जुगति बिना भगति किनि पाई॥टैक॥
एक कहावत मुलाँ काजी, राम बिना सब फोकटबाजी॥
नव ग्रिह बाँभण भणता रासी, तिनहुँ न काटी कौ पासी॥
कहै कबीर यहु तन काचा, सबद निरंजन राम नाम साचा॥142॥

जाइ परो हमरो का करिहै, आप करै आप दुख भरिहै॥टेक॥
ऊभड़ जाताँ बाट बतावै, जौ न चलै तौ बहुत दुख पावै॥
अंधे कूप क दिया बताई, तरकि पड़े पुनि हरि न पत्याई॥
इंद्री स्वादि विषै रसि बहिहै, नरकि पड़े पुनि राम न कहिहै॥
पंच सखी मिलि मतौ उपायौ, जंम की पासी हंस बँधायौ॥
कहै कबीर प्रतीति न आवै, पाषंड कपट इहै जिय भावै॥143॥

ऐसे लोगनि सूँ का कहिये।
जे नर भये भगति थैं न्यारे, तिनथैं सदा डराते रहिये॥टेक॥
आपण देही चरवाँ पाँनी ताहि निंदै जिनि गंगा आनी॥
आपण बूड़ैं और कौ बोड़ै, अगनि लगाइ मंदिर मैं सोवै॥
आपण अंध और कूँ काँनाँ, तिनकौ देखि कबीर डराँनाँ।144॥

है हरि जन सूँ जगत लरत है, फुँनिगा कैसे गरड़ भषत है॥टेक॥
अचिरज एक देखह संसारा, सुनहाँ खेदै कुंजर असवारा॥
ऐसा एक अचंभा देखा जंबक करै केहरि सूँ लेखा॥
कहै कबीर राम भजि भाई, दास अधम गति कबहुँ न जाई॥145॥

हैं हरिजन थैं चूक परी, जे कछु आहि तुम्हारी हरी॥टेक॥
मोर तोर जब लग मैं कीन्हाँ, तब लग त्रास बहुत दुख दीन्हाँ॥
सिध साधिक कहैं हम सिधि पाई, राम नाम बिन सबै गँवाई॥
जे बैरागी आस पियासी, तिनकी माया कदे न नासी॥
कहै कबीर मैं दास तुम्हारा, माय खंडन करहु हमारा॥146॥

सब दुनी सयाँनी मैं बौरा, हँम बिगरे बिगरौ जिनि औरा॥टेक॥
मैं नहीं बौरा राम कियो बौरा, सतगुर जारि गयौ भ्रम मोरा॥
विद्या न पढूँ बाद नहीं जानूँ, हरि गुँन कथत सुनत बौराँनूँ॥
काँम क्रोध दोऊ भये विकारा, आपहि आप जरे संसारा॥
मीठो ककहा जाहि जो भावै, दास कबीर राम गुँन गावै॥147॥

अब मैं राम सकल सिधि पाई, आँन कहूँ तो राम दुहाई॥टेक॥
इहि चिति चाषि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा॥
औरे रसि ह्नैहै कफ गाता, हरि रस अधिक अधिक सुखदाता॥
दूजा बणिज नहीं कछु बाषर, राम नाम दोऊ तत आषर॥
कहै कबीर जे हरि रस भोगी, ताकूँ मिल्या निरंजन जोगी॥148॥

रे मन जाहिं जहाँ तोहि भावै, अब न कोई तेरे अंकुस लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाई तहाँ तहाँ रामा, हरि पद चीन्हि कियौ विश्रामा।
तन रंजित तब देखियत दोई, प्रगट्यौ ग्याँन जहाँ तहाँ सोई॥
लीन निरंतर बपु बिसराया, कहै कबीर सुख सागर पाया॥149॥

बहुरि हम काहैं कूँ आवहिंगे।
बिछुरे पंचतत्त की रचना, तब हम रामहि पावहिंगे॥टेक॥
पृथी का गुण पाँणी सोष्या, पाँनी तेज मिलावहिंगे॥
तेज पवन मिलि सबद मिलि, सहज समाधि लगावहिंगे॥
जैसे बहु कंचन के भूषन, ये कहि गालि तवावहिंगे॥
ऐसै हम लोक वेद के बिछुरें, सुनिहि माँहि समावहिंगे॥
जैसे जलहि तरंग तरंगनी, ऐसैं हम दिखलावहिंगे॥
कहै कबीर स्वामी सुख सागर, हंसहि हंस मिलावहिंगे॥150॥

कबीरा संत नदी गया बहि रे,
ठाढ़ी माइ कराड़े टेरै, है कोई ल्यावैगहि रे॥टेक॥
बादल बाँनी राम घन उनयाँ, बरिषै अमृत धारा॥
सखी नीर गंग भरि आई, पीवै प्राँन हमारा॥
जहाँ बहि लागे सनक सनंदन, रुद्र ध्याँन धरि बैठे॥
सूर्य प्रकास आनंद बमेक मैं घर कबीर ह्नै पैठे॥151॥

अवधू कामधेन गहि बाँधी रे।
भाँड़ा भंजन करे सबहिन का, कछू न सूझे आँधी रे॥टेक॥
जौ ब्यावै तौ दूध न देई, ग्यामण अंमृत सरवै॥
कौली धाल्याँ बडहि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै॥
तिहि धेन थैं इंछ्या पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।
ग्वाड़ा माँहै आनँद उपनो, खूँटै दोऊ बाँधी रे।
साई माइ सास पनि साई, साई बाकी नारी।
कहै कबीर परम पद पाया, संतौ लेहु बिचारी॥152॥
टिप्पणी: ख-साई घर की नारी।