भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रूप गह़लक सपनवाँ / अरुण हरलीवाल
Kavita Kosh से
सोना-सन गोहुम के बाल, हो!
रूप गहलक सपनवाँ।
धोती-पगड़ी, पायल-कँगना...
खेत-बगइचा, दूरा-अँगना...
रंगीन भेलइ चौपाल, हो!
फगुआएल पवनवाँ।
रँग पहचान रहल हे अन्हरो;
गोंगो गावे, नाचे लँगड़ो...
लूल्हो बजावे करताल, हो!
गूँजऽ हइ गगनवाँ।